Sunday, February 3, 2013


थोड़ा नहीं है

अर्पण कुमार

 

किसी को थोड़ा जानना

किसी से थोड़ा बतियाना

थोड़ा नहीं है

ओस-स्नात दूब पर जैसे

तड़के सुबह

नंगे पाँव चलते

नन्हें सूरज की ओर 

थोड़ा लपकना

थोड़ा नहीं है

चेहरे पर

दिवस भर की लाली को

एकबारगी मल लेने के लिए

 

किसी को थोड़ा चाहना

किसी से थोड़ा पाना

थोड़ा नहीं है 

एक छतरी में

साथ चलते जैसे

थोड़ा बचना, थोड़ा भीगना

थोड़ा नहीं है

इतिहास के अधगीले उस खंड को

अपना बना लेने के लिए

 

किसी को थोड़ा विचलित करना

किसी से थोड़े ताने सुनना

थोड़ा नहीं है

अँधेरे की अतल गहराई में

जल की शांत तरंगों बीच

दो सीपों का जैसे

थोड़ा जागना, थोड़ा सोना

थोड़ा नहीं है

ज्वार उठा देने के लिए

अपनी साँसों से

समंदर में जब कभी

 

हो सके प्रस्फुटित

लावामें मक्का

उछाल भरी ध्वनि सहित

थोड़ी नहीं है

मुट्ठी भर रेत

इस चटख कायांतरण के लिए

जैसे किसी को थोड़ा बनाना

किसी से थोड़ा बनना

थोड़ा नहीं है

1 comment:

  1. dost aaj kal aisi kavita kam hi likhi ja rahin hain.... bhagam bhag me humy sirf aur sirf trishna hi haath ayyeee hai... santushti to jaisy beey yug ki bat ho gai hai.. usi kshan tumhari kavita santosh deti hai ki sahity me bahut kuch baki hai aur rahega.... shubhasheesh aur mangal kamnayyn

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