Wednesday, November 12, 2014

हरिगंधा, पंचकूला में प्रकाशित अर्पण कुमार की कविता


    खूँटी

अर्पण कुमार

 

एक

 

मुझे ज़रूरत थी

एक खूँटी की

टाँग सकता था जिसपर

स्वप्न,

यौवन,

मुखौटा,

और दर्द भी अपना

मैंने पार की

दीवारें कई

मगर

सपाट थीं सभी

नहीं मिलनी थी

नहीं मिली

कोई खूँटी कहीं

 

दो

 

दिखते हैं एक से

कुछ-कुछ उखड़े हुए अक्सरहाँ

कवि,राजनेता और अपराधी

और दिख जाती हैं खूँटियाँ

जब-तब

उनके चेहरे पर तो कभी

उनके स्वभाव में

 

चरित्र और कार्य-व्यापार

बेशक भिन्न-भिन्न हों इन तीनों का

मगर चेहरे पर उगी खूँटियों के लिए

इनका चेहरा तो एक सतह मात्र है

जिस पर साम्राज्य

फैलाए होती हैं अपना

बेहिचक और बेखौफ  

ये खूँटियाँ ही  

और कहीं भीतर बहुत गहरे से

पैठकर उनके रक्त में

ले रही होती हैं

अपना पोषण

प्रकटतः  दिखती इन खूँटियों की लघुता

हकीकत में सुदीर्घ और घनी होती है अक्सरहाँ    

 

जिन्हें हम इन व्यक्तियों का उखड़ना

या उनका हरदम खिन्न रहना

तो कभी किसी ख्याल में

उनका गुम रहना समझते हैं

और उनसे डरते तो

कभी नफरत करते हैं हम

या उन्हें कोई महान आत्मा समझ

उनका आदर करते हैं हम ....

अगर ग़ौर से देखें तो वे स्वयं  

दरअससल  इन्हीं खूँटियों के

गुलाम  हैं

 

तीन

फसल आ पहुँचती है

खलिहान में

अनाज चला जाता है

मंडी में

छोड़ दी जाती हैं

या फिर जला दी जाती हैं

यूँ ही

खेतों में
खूँटियाँ
.................

राजस्थान पत्रिका के 15 सितंबर 2013,रविवार अंक में प्रकाशित अर्पण कुमार की कविता


पुरुष दंभ

अर्पण कुमार

 

ग़ौर  से  सुनो 

अँधेरी रात के  गहराते 

खामोश  पलों  को

जिसको चीरती चली आ रही है

पानी की गड़गड़ाहट

तुम्हारे कानों तक

और तुम्हें अच्छी तरह पता है

गड़-गड़ के इस अनाहूत, अनवरत स्वर के पीछे

दम साधे किसका आत्मविस्मृत,

हृदयविदारक विलाप है

मगर तुम निस्पंद बैठे हुए हो

बहरे होने का ढोंग करके

 

मंद-मंद बहती नदी

स्वयं में सिमटती

जाने कितने युगों से

डूबती-उतराती रही है

अपने ही आँसुओं के सैलाब में

 

सोचो,

अगर एक नदी यूँ अश्रुपूरित है

तो इतिहास और परंपरा के

किन कठोरतम अध्यायों और

दुरभिसंधियों ने

एक सहज, प्रवहमान नदी को

यूँ ज़ार-ज़ार रुलाया होगा

 

सोचो,

नदी की शीतलता और मिठास लेकर

उसके देय को

सिरे से खारिज कर देने

और उसकी अवमानना करने के

अपने परंपरागत, रुढ़िजनित

पुरुष-दंभ की कथित रूप से

गर्वित, अग्रिम पंक्ति में

कहीं तुम भी तो

खड़े नहीं हो
................

Friday, October 24, 2014

अर्पण कुमार के काव्य-संग्रह 'मैं सड़क हूँ' की समीक्षा उमेश चतुर्वेदी द्वारा



कविता संग्रह मैं सड़क हूं

कवि अर्पण कुमार

प्रकाशक बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य 75 रूपए

संभावनाशील कविताएं

उमेश चतुर्वेदी

कविताओं में चित्रों का संसार कोई नई बात नहीं है। लेकिन कविताओं को पढ़ते वक्त कूची के कमाल का आभास बहुत कम कविताओं के साथ ही हो पाता है। लेकिन अर्पण कुमार के ताजा संग्रह मैं सड़क हूं की कविताओं को पढ़ते हुए यह अनुभव बार-बार होता है। उनकी कविताओं में सड़क है, नदी है, स्त्री है, धूप है, कुआं है, चाकू है, खूंटी है..आम जिंदगी में रोजाना तकरीबन सबका इनसे राफ्ता पड़ता है..लेकिन इन चीजों से भी संवेदना इतनी गहरे तक जुड़ी हो सकती है...इसे एक संजीदा कवि ही देख सकता है...अर्पण इन्हें देखने और उनके जरिए दर्द और उदासी भरी संवेदनाओं को उकेरने में कामयाब हुए हैं। मैं सड़क हूं संग्रह में कुल तैंतीस कविताएं हैं। लेकिन उनमें बुढ़ापे में अकेली होती मां भी है, उनका अपना पटना शहर भी है..जिसे पीछे छोड़ आए हैं...जिनके साथ उनकी सुंदर और संजीदा स्मृतियां जुड़ी हैं..लेकिन अब लौटते वक्त उन्हें वह पुरानी उष्मा नहीं मिलती। शायद इसी के बाद उनकी कविता फूट पड़ती है आजकल मैं पटना जंक्शन पर नहीं उतर रहा हूं। अर्पण के इस संग्रह में पिता की कवि छवियां हैं। पेंशनयाफ्ता की जिंदगी जीते पिता हैं, आश्वस्त पिता हैं...असमय बूढ़े हो रहे पिता हैं...लेकिन सबसे मार्मिक कविता है साठवें बसंत में कालकवलित हो चुके पिता..यह कविता जिंदगी के एक अंतहीन गह्वर में छोड़ जाती है। अर्पण के इस संग्रह में एक कविता है मजिस्टर राम का शरणार्थी यह लंबी कविता आजादी के पैंसठ साल बाद भी गांवों की बदहाली और वहां पिछड़े रह गए कमजोर लोगों की शहरों में शरणार्थी की तरह जिंदगी गुजारने की मजबूरी को मार्मिक तरीके से उठाती है। इस कविता को पढ़ने के बाद जिंदगी और विकास के दावे तार-तार होते जाते हैं...इस संग्रह की एक कविता इन दिनों मौजूं बन पड़ी है...महानगर में एक कस्बाई लड़की। इस कविता की कुछ पंक्तियां बेहद संभावनाशील हैं-लक्ष्मण रेखा के पार /निकल पड़ी है वह/ अपने बड़े से जूड़े को कस/असीमित आकाश को/ अपने आंचल में समेटने..इस संग्रह की शीर्षक कविता है मैं सड़क हूंयह कविता नए बिंब खड़ी करती है और बिंबों के जरिए संभावना के नए वितान भी तैयार करती है-तुम मुझे बनाते हो/ और फिर रौंदते हो/ अपने पैरों के जूतों/ अपनी गाड़ियों के पहियों/ और अपनी तेज अंतहीन रफ्तार से..इन कविताओं को पढ़ने बाद लगता है कि अर्पण में काफी संभावनाएं हैं। कुल मिलाकर यह संग्रह बेहद पठनीय बन पड़ा है।

उमेश चतुर्वेदी

द्वारा जयप्रकाश, दूसरा तल, एफ-23 ए, निकट शिवमंदिर

कटवारिया सराय, नई दिल्ली-110016

Thursday, October 23, 2014

अर्पण कुमार की कविता 'बीमारी और उसके बाद', पाखी 2014 में प्रकाशित



बीमारी और उसके बाद

     अर्पण कुमार

 

                कितना कुछ टूट्ने  लगता है

                शरीर और मन के अंदर

                घर में और घर के बाहर

                जब घर का अकेला कमाऊ मुखिया

                बीमार पड़ता है

                वक़्त ठहर जाता है

                खिड़की और बरामदे से

                आकाश पूर्ववत दिखता है

                मगर गृहस्वामिनी के हृदय के ऊपर

                सूर्य-ग्रहण और चंद्रग्रहण दोनों

                कुछ यूँ छाया रहता है कि

                दिन मटमैला और उदास दिखता है

                और इस मंथर गति से गुजरता है

                मानों किसी अनहोनी के इंतज़ार में

                रूका खड़ा हो

                रात निष्ठुर और अपशकुन से भरी

                बीते नहीं बीतती

                मानों शरीर में चढा विषैले साँप का ज़हर

                उतारे नहीं उतरता

 

                बीमारी का निवास तो

                किसी व्यक्ति-विशेष के शरीर में होता है

                मगर उसकी मनहूसियत

                पूरे घर पर छायी रहती है

                बच्चों की किलकारी से हरदम गूँजनेवाला घर

                दमघोंटू खाँसी से भर जाता है

                गले की जिस रोबीली आवाज़ की मिसाल

                पूरा पड़ोस दिया करता था

                आज उसकी पूरी ताकत

                आँत को उलटकर रख देने वाले

                वमन करने में लगी हुई है

                बीमारी एक चपल शरीर को

                चार बाई छह की चारपाई तक

                स्थावर कर देती है

                घर की पूरी दिनचर्या

                डॉक्टर की बमुशिक्ल समझ आनेवाली पर्ची

                और विभिन्न रंगों की दवाईयों

                के बीच झूलती रहती है

                स्कूल से अधिक अस्पताल की और

                पढाई  से अधिक स्वास्थ्य की चर्चा होने

                लगती है

                खट्टे हो गए संबंध                                              

                कुछ दिनों के लिए ही सही

                मोबाईल पर मधु-वर्षा करने लगते हैं

                बुखार में तपते शरीर की ऐंठन

                कुछ यूँ मरोड़ देती है कि

                मन में कहीं गहरे जमी अकड़

                जाने कहाँ हवा हो जाती है

                बीमारी शरीर को दुःख देती है

                और अपने तईं

                मन को विरेचित भी करती है

                छोटे और सुखी परिवार की आदर्शवादी संकल्पना की

                आड़ में जीते मनुष्य को

                सहसा अपना परिवार काफी छोटा लगने लगता है

                बच्चों को हरदम अपनी छाती से चिपटाए

                रखने वाले दयालु पिता के कंधे

                जब झुकने और चटकने लगते हैं

                तब हमेशा सातवें आसमान पर रहने वाला

                उसका गर्वोन्मत्त पारा

                एक झटके में यूँ गिरता है

                कि वह संयुक्त परिवार की ऊष्मा तले ही

                किसी तरह सुरक्षित रहना चाहता है

                नाभिकीय- परिवार की आयातित व्यावहारिकता

                तब किसी लूज-मोशन का रूप धर

                क़तरा-क़तरा बाहर निकल जाती है

 

                बीमारी के बाद

                शरीर और संबंध दोनों कुछ

                नए रूप में निखरकर सामने आता है

                रोज़मर्रा के कामों में

                मन पूर्ववत रमने लगता है

                आत्मविश्वास  लौटने लगता है

                दिन की उजास भली और

                रात की चाँदनी मीठी लगने लगती है

                घर भर पर छाया बुरे वक़्त का ग्रहण

                छँटने लगता है

                और फिर आस-पड़ोस के हँसते-खेलते माहौल में 

                अपनी ओर से भी कुछ ठहाके

                जोड़ने का मन करता है

                बच्चों को उनके स्कूल-बस तक

                छोड़ने का सिलसिला

                उसी उत्साह और मनोयोग से

                पुनः शुरू हो जाता है

                पत्नी के साथ बना अछूत सा संबंध

                अपनी पुरानी रूमानियत में आकर टूटने लगता है

                और कुछ नए रंग और तेवर के साथ

                गृहस्थ-जीवन सजने और संवरने लगता है

                

                बीमारी के कष्टदायक दिनों में

                मंथर हुआ समय

                एक बार पुनः अपनी पूरी रफ़्तार से

                उड़न-छू होने लगता है

                मन-बावरा ठगा‌ठिठका

                उसे  चुप-चाप देखता चला जाता है

                इस अहसास के साथ कि

                वह अपने वक़्त पर लाख चाहकर भी

                कोई नियंत्रण नहीं रख सकता

                अच्छे और बुरे वक़्त को स्वीकार करने

                और उसके साथ चलते जाने के सिवा

                उसके पास कोई चारा नहीं है

 

                बीमारी व्यक्ति को उसका क़द दिखलाती है

                और समय से डरने को कहे ना कहे

         समय का आदर करने को ज़रूर कहती है  ………………………………………………………………………………………………………