Tuesday, April 8, 2014

अरसे बाद कुछ लिखने बैठा हूँ...क्या लिखूँ...!कुछ समझ नहीं आता। लिखने और उसके प्रकाशन के कई नए-नए मंच तैयार हुए हैं मगर लिखना है कि जैसे मुझसे रूठा हुआ हो! लेखन और लेखकों की दुनिया अन्य दुनिया की ही तरह स्वार्थ, चाटुकारिता और लंपटता से भरी हुई है। लिखने में जिन प्रजातांत्रिक मूल्यों की बात लेखकों द्वारा की जाती है, बहुधा उनके आचरण में उनकी कमी पाई जाती है। आज लेखन के सामने सबसे बड़ा सवाल उसके अंदर की ईमानदारी और समर्पण को बचाना है। लिखने की हड़बड़ी से बचना लिखने से पलायन नहीं है, बल्कि कुछ बेहतर लिखने की कसौटी पर खरा उतरना है और यह कसौटी भी बिना किसी आत्म-मोह के खुद ही निर्मित करना है। लिखना एक साधना है और इसमें कुछ निरंतर कुछ बेहतर साधते जाने की कोशिश की जानी चाहिए। कभी भाषा के स्तर पर तो कभी भाव के स्तर पर्।कभी कुछ नया कहने के शिल्प पर तो कभी किसी पुराने को नए तरीके से लिखे जाने की ज़रूरत पर्। इस क्रम में अगर लिखने का क्रम टूटे भी तो उसपर दुःखी और निराश होने की ज़रूरत नहीं है। लिखे हुए कुछ बेहतर रचनाओं पर मठाधीशों की नज़र न जाए तो उनके काले चश्मों के पीछे का उनका अपना ज्ञान-तमस है, जिसका हिसाब इतिहास कभी स्वयं उनसे मानेगा। वैसे भी किसी मान्यता के लिए किसी की ओर मुँह ताकना एक किस्म की दयनीता है, जिससे लेखन और आचरण दोनों में बचने की ज़रूरत है। लिखना रोज़ हो, यह आवश्यक नहीं है लेकिन लिखनें में हर बार कुछ नए तेवर और बांकपन आए तो यह लिखना श्रेयस्कर है।