Sunday, May 6, 2018

आज सुबह से लिखी जा रही यह कविता फिलहाल इस रूप में प्रस्तुत है। यह भी सोचता हूँ, ऐसी कविताएँ कम से कम लिखनी पड़ें।

मैं एकमात्र प्रासंगिक
अर्पण कुमार

मैं प्रासंगिक बने रहना चाहता हूँ
इसके लिए दरकार है मुझे
अपने से बड़े हरेक को छोटा कर देना
इसके लिए स्वीकार है मुझे
किसी गौरवमय अतीत को
धूल धूसरित कर देना
इसके लिए अधिकार है मुझे
किसी सीमा तक चले जाना

मुझे प्रासंगिक बने रहना है
तो मुझे अपने से इतर कइयों को
अप्रासंगिक सिद्ध करना होगा
मेरी सखियो! मेरे दोस्तो!
तुम समझते क्यों नहीं
मैं तुम सब का हीरो हूँ
तो मुझे किसी हीरो की तरह
दिखना भी होगा न !
कभी मुझे अपनी कमीज़ उतारनी होगी
कभी अपने ‘सिक्स पैक’ दिखाने होंगे
कभी अपना कॉलर खड़ा रखना होगा
कभी अपना चश्मा पीछे खोंसना होगा

मेरे अनुयायियो!
मैं महान तो मैं तभी बन सकूँगा न
जब तुम मेरी हर चीज़ को पसंद करते जाओगे
मैं आए दिन लोगों को आउटडेट करता चलूँ
और आए दिन मेरी 'प्रोफाइल' अपडेट होती रहे

मैं तुम्हें यह कभी नहीं बताऊँगा कि
मुझे जब किसी कविता या कहानी के लिए
सम्मानित किया गया तो
उसके निर्णायकों में कुछ ऐसे लोग थे
जिन्हें मैं स्वयं भूल चुका हूँ
तुम लोगों को भला
फिर क्योंकर याद दिलाऊँगा
मैं इसी तरह से
शीर्ष पर विराजमान रहना चाहता हूँ
मैं किसी तरह से
स्वयं के लिए बस सम्मान बटोरना चाहता हूँ

जिसे मैंने अपनी सीढ़ी बनाई,
आज उसे अपने से अलग कर देना चाहता हूँ
क्योंकि वे यादें असंख्य चींटियों की मानिंद
मेरे अस्तित्व पर रेंगती हैं
मुझे उस बोझ को अब उतार फेंकना है
हाँ, आपने ठीक है समझा
मैं प्रासंगिक बने रहना चाहता हूँ
मैं अतीत को मटियामेट कर
भविष्य को नपुंसक बनाना चाहता हूँ
तुम शायद बाद में समझो…
साहित्य का बधियाकरण मेरे ही हाथों होना है
जिस किसी के लिखे और कहे में दम है
मैं उसे बेदम कर दूँगा
क्योंकि भविष्य में मुझे उससे खतरा नहीं होना चाहिए
इसलिए उसके आत्मविश्वास को तोड़ना
मेरी प्राथमिकता होगी
हाँ, हमारे जिन वृद्ध कलमकारों की अब
मेरे वास्ते कोई उपयोगिता नहीं रही
मैं उन्हें कुछ भी कह सकता हूँ
क्योंकि मैं जानता हूँ
मुझे उनसे कोई नुकसान नहीं हो सकता
उन्हें जितना दुहना था
मैं दुह चुका उन्हें

मेरे दोस्तो!
यह साहित्य का नया शिल्पग्राम है
जिसका शिल्पकार मैं हूँ
मैं जिस पत्रिका या अखबार से हट जाता हूँ
वह पत्रिका और अखबार अप्रासंगिक हो जाता है
प्रियजनो!
याद रखना, अगर तुम्हें भी प्रासंगिक बने रहना है
तो निःसंदेह मुझसे दूर मत जाना
यह मेरे नायकत्व का ढिंढोरा है
या फिर इसे तुम मेरी धमकी ही मानो
क्योंकि विनयशीलता और बराबरी की भाषा अब
अप्रासंगिक हो गई है

मुझे बहुत ज़ल्दी है शीर्ष पर पहुँचने की
तुम बस देखते जाओ
कुछ ना बोलो
यह खेल है साहित्य का
यहाँ बात चलती है हरदम गिरने और गिराने की
राजनीति से अधिक बढ़कर राजनीति  है यहाँ
सिर्फ उपन्यास, कहानियाँ और कविताएँ लिखने से
कोई बड़ा नहीं होता यहाँ

मैं जानता हूँ
इस खेल के सभी पैंतरे
इसकी शब्दावली के रंग सारे
और मेरी मेधा ने कंठस्थ कर रखा है
इसका व्याकरण जाने कब से
मैं उकसाकर लोगों को कई बार
इस खेल का मज़ा लेता हूँ
आप क्यों नहीं समझते
यह सब करने से मुझे ‘एक्स्ट्रा किक’ मिलता है
हाँ, कुछ भी हो चाहे
मैं एकमात्र प्रासंगिक बने रहना चाहता हूँ
तुम मेरी इस चाहत के साथ चाहो तो
कुछ दूर चल सकते हो
तुम मेरे मूक फॉलोअर्स बने रह सकते हो 

मैं हर मौलिक कंठ को अवरुद्ध कर देना चाहता हूँ
मैं साहित्य में मनचलों का
क़ाफिला खड़ा करना चाहता हूँ
मैं संपादक हूँ, मॉडरेटर हूँ,
आयोजक-मंडली में भी शामिल हूँ 
मैं कुछ भी कर सकता हूँ

मेरे आलोचको!
यह तुम्हारी ग़लती है कि
तुम अबतक मुझे
इतनी गंभीरता से लेते रहे
मैं तो बस
मौसम के बदलते तापमान के अनुसार
कुछ लिख देता हूँ
कभी इसको, कभी उसको ‘पोक’ कर देता हूँ
कभी इधर तो कभी उधर हो जाता हूँ
सुविधानुसार कोई ‘साइड’ ले लेता हूँ
मेरे अलावा यहाँ हर तीसरा शख्श बिकाऊ है
अतीत मेरे लिए कुछ नहीं बस एक खड़ाऊँ है
मैं उसे आज के संदर्भ से काट देना चाहता हूँ
मैं प्रासंगिक होना चाहता हूँ
तुम कभी नहीं जान पाओगे
यह वही खड़ाऊँ है जिसकी अभ्यर्थना
कभी मैं दिन-रात किया करता था
मैं तुम्हें यह नहीं बताऊँगा
क्योंकि खड़ाऊँ में घुसने वाले पैरों में
अब पहले जैसी ताकत नहीं रही
और मेरी गर्दन भी अब उन पैरों के नीचे नहीं है

मैं प्रासंगिक रहना चाहता हूँ
मैं जानता हूँ
कविताएँ, कहानियाँ और उपन्यास बहुतेरे लिख रहे हैं
मैं भी लिख रहा हूँ
लेकिन मुझे अगर ‘न्यूमरो यूनो’ बने रहना है
तो मुझे कुछ और कसरत करने होंगे
मुझे भाँजने होंगे तलवार और लाठी हवा में
बस, उससे क़त्लेआम नहीं होगा
हाँ, लोगों को मैं ख़ून और पसीना बहाता
ज़रूर नज़र आऊँगा
तुम कभी नहीं जान पाओगे मेरे प्रेमियो!
मैं जिस किसी को गरियाता हूँ
उससे कहीं ना कहीं
मैं अपना पुराना प्रतिशोध लेता हूँ औ
और मन ही मन
कहीं न कहीं
उस जैसा बनना चाहता हूँ

हाँ, मैं प्रासंगिक बने रहना चाहता हूँ
कभी दोस्ती का हाथ बढ़ा कर
कभी दुश्मनी के दो बोल, बोल कर
तुम मुझे इतना मान देते हो
मैं इसी का तो फ़ायदा उठाता हूँ
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