Saturday, July 9, 2011

कुछ गजलें


एक

रक़ीब बन गया है वो, था जो तेरा राजदाँ कभी
किसने तुम्हें बख्शा है, मेरे दिल-ए-नादाँ कभी
रौशनी बुझ गई आखिर बूढ़ी उन आँखों की
बसती थी जिसमें पुरानी पनीली कोई दास्ताँ कभी
लहरों में जाने कब कहाँ मिटते चले गए
थे रेत पे हर सू बने उलप़फत के जो निशां कभी
किसी चाँद को तकता भी तो कैसे, मेरे हिस्से
नहीं था कहीं, मेरा अपना कोई आसमां कभी
बस्ती कब की है जलकर राख में मिल चुकी
कमबख़्त कब ये जाएगा, दिल में था जो बैठा धुआँ कभी
दो
रुदन और हँसी में बच्चा बदल रहा है
दुख और खुशी में बच्चा बदल रहा है
ग़ौर कीजिए उसकी छोटी-से-छोटी बात पर
अपनी हर बतकही में बच्चा बदल रहा है
गले लगिए और उसकी धड़कनों को सुनिए
साँसों की आवाजाही में बच्चा बदल रहा है
बढ़ रहा है वो दिन दूनी रात चैगुनी रफ्रतार से
इंच-इंच की लंबाई में बच्चा बदल रहा है
कोई दाग़ नहीं दिखता अपने चाँद में जिसे
माँ की बदगुमानी में बच्चा बदल रहा है
दीवारों पर उकेरे हैं उसने अक्षर कई
अपनी टेढ़ी-मेढ़ी लिपि में बच्चा बदल रहा है
पिता की छाती पर सिर रख बेखौपफ सो जाता है
दरख़्त छतनार की निगहबानी में बच्चा बदल रहा है
सबक सीखता है रोश नए-नए, पाठशाले में
दिनचर्या की रवानी में बच्चा बदल रहा है
तीन
जब भी देखा शहर अपना नीम अंधेरे में दिखा
दिन भर सोया किया, रात भर मैं भटका किया
सच पूछो तो इस हिसाब से गाफिल ही रहा
किसको मैंने क्या दिया, किससे मैंने क्या लिया
तनहाई की खुशबू है हर सू जफ़ा की महफ़िल में
ऐ खुदा! तूने मुझे क्या खूब हंसी ये मंज़र दिया
रास आने लगा है अपना बौना कद ही अब तो
हर बड़ी हस्ती ने मुझको है इतना छोटा किया
नशे में कौन इसका हिसाब रखता है शाकी कहो
कितने जाम खुद से पिए, कितने तेरे हाथों से पिया
लेन-देन इक-दूजे से कुछ इस तरह पूरा किए
उसने मुझे आँसू दिए, जब-जब मैंने उसे मुस्कान दिया
घर के पुराने आईने की अब किसे दरकार है
बाज़ार से मैंने भी है इक नया चेहरा लिया
है पुर सुकूँ बड़ा गुमनामी का अंधेरा, अज़ीज़ों!
जब मर्ज़ी है सोया किया, जब मर्ज़ी है जागा किया

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